Saturday 23 December 2017


        वक्त और नियति का अजीब खेल !                                        


ज़िंदगी किसी कोने में किबाड़ की ओट में फंसी सी लग रही है | हर पल बितता समय एक असमंजस की घडी में जाके टिक गया है, ऐसा लग रहा है शायद वक्त आप को अकेले रेगिस्तान में छोड़कर कही सैर सपाटे पे निकल गया है|  ये भी हो सकता है की ये एक समय की चाल हो पर कितने इम्तिहान लिए जायेंगे इस सूखे पड़े एकांत रेगिस्तान में | वक्त को ये भी पता है की मेरे क्रूर वार को कब तक सहेगा एक इंसान उसे किसी न किसी दिन टूट जाना है पर नियति अपना ही खेल खेलती है, एक इंसान जो इतना टूट गया है उसे वक्त के सामने घुटने टेकने नहीं देती | यूँ भी कहें ये वक्त और नियति की साझा चाल हो जो दोनों आपस में मिलकर खेल रहे हो | नियति की सरहाना की जानी चाहिए वो मित्र क्यों न हो पर विधान ये ही कह रहा है की नियति भी अपने अंदर छुपे इंसानियत को दबा नहीं सकी और इंसान को एक मौका देने की कोशिश में लगी हुई है | वक्त और नियति दोनों ही अपना खेल खेल रहे है अब इंसान को तय करना है अपना दॉंव ,की वो इस खेल को कहाँ ले जाता है | खेल में शह और मात लगा रहता है | देखना अब ये बाकी रह गया है की इंसान इस शतरंज के खेल में किस खाने में अपनी चाल चलता है | उसकी अगली चाल से ये निर्णय हो सकता है की वो इस खेल को कबतक जारी रखना चाहता है | जल्दी से जल्दी इंसान इस खेल के दांव सीख ले उसके लिए अच्छा है क्यों की ज़िंदगी एक मुसाफिर है | शायद इंसान अगले पल किसी डगर पर वक्त के सितम में फंसा हुआ नज़र आये | इस छोटी सी ज़िंदगी में हज़ारों दास्ताने लिखी जा चुकी है | अब इंसान को ये निर्णय लेना है की वो इन हज़ारो दास्तानों में से किसका ताला खोलता है चाबी उसी के पास है | अब आप प्रतीझा करे या चुनौती स्वीकार करे ये आप के ऊपर निर्भर करता है |