.... मकान खाली कर दो| जिंदगी की राहों में जैसे ताला जड़ दिए हो | एक सनसनाटी आवाज आयी
"आपके पास दो दिन की मोहलत है| " पर दो दिन में ये संभव नहीं , मैं 30 साल से ....... रूंधते गले से अचानक आवाज़ रुक गयी | किराये का मकान किराये का होता है और ऊपर से तुम अस्पताल के कर्मचारी ठहरे| आवाज़ में एक रोष था| मगर आप जानते है इस वक्त देश के हालत कैसे है, मैं 55 के उम्र में कहाँ जाऊंगा| तो क्या मैं अपने परिवार को मरने छोड़ दूँ ,ना जाने अस्पताल में कितनो को छुआ होगा तुमने| पुरे घर में एक सन्नाटा छा गया जैसे घर की एक एक ईटे बेजान हो गयी हो| लड़खड़ाके फिर सम्भलते हुए उसने कहा, "ठीक है जैसा आप मुनासिब समझे , कल ही मैं ये मकान खाली कर दूंगा|" आप सब महफूज रहे ये इल्तिज़ा है मेरी| जुबां खामोश हो गयी जैसे अब कुछ बचा ही ना हो बोलने को|
"आप इत्मीनान से बैठ जाइये, मैं एक कप चाय बना देता हूँ आपके लिए|" तल्ख़ होते माहोल के बीच सुदर्शन ने कहा| 'नहीं मुझे कुछ नहीं पीना है, बस आप ये मकान .........|' चीखते चिल्लाते हुए मनोज मकान से बाहर निकला| हांफते कंपकपाते हुए उसने एक कुर्सी अपनी तरफ खींची और उस पर इत्मीनान से बैठ गया| कुछ देर बैठने के बाद कमरे के एक कोने की और रुख किया| अलमारी में रखे कुछ कपडे और चंद पैसे समटने लगा| तभी कपड़ों के साथ कुछ फटे पुराने पन्ने नीचे गिर गए, उन्हें उठाने की ज़हमत करते हुए वहीं ज़मीन पे बैठ गया| कपडे उठाते हुए फटे पन्नो पर निगाहे गयी तो देखा मनोज के बेटे की अस्पताल रिपोर्ट थी| कुछ बरस पहले भाग दौड़ करते हुए कैसे उसके बेटे की जान बची थी| उन कागजो को वहीं छोड़, कपडे समटने में मशगूल हो गया| सब सामान को संदूक में भर कर बाहर वाले कमरे में रखी टूटी टेबल पर पटक दिया| वही पास में रखी कुर्सी पे जाके बैठ गया, कुछ समय बाद अचानक उठा और रसोईघर की तरफ चला दिया| एक कप चाय के साथ वापस आया और फिर उसी कुर्सी पे आके इत्मीनान से बैठ गया और सोचने लगा 'इस कैफियत में सारे इंसानो के फितरत एक जैसी होती है|' खैर छोड़िये "किराये का घर किराये का होता है" और सुकून से एक कप चाय पीने लगा| संदूक उठाया और लबो पे एक मुस्कराहट लेते हुए घर से बहार आ चला|
बहार आकर देखा तो सुने शहर, वीरान रास्ते एक झुठलाती तस्वीर बयां कर रहे है| काफिलों पे काफिले, पैदल नंगे पाव, जेब खाली, गठरी में दो जोड़ी कपडे , पैरो में छाले, टूटे मन और ठिठकी उम्मीदों के साथ गाँव जा रहे उन मजदूर लोगो की दास्तान है जिन्हे कभी किसी ने नहीं जिया| मैं भी उन काफिलों के साथ हो चला, मुलाकात हुई तो 'लोगो ने कहा यहाँ से बस मिलेगी, तो मैं यहाँ आ गयी| बहुत देर से पैदल चल रही हूँ, मुझे याद नहीं कितने घंटे| मैं बहुत परेशान हूँ, रो-रोकर गुहार लगा रही हूँ| मेरा कोई नहीं है यहाँ , मैं कहाँ रूकती, वो पूछ रही थी| मेरे पास इसका कोई जवाब ना था, मैंने अपने बस्ते से कुछ खाने के पैकेट निकले और दे दिए| मैंने अपना मोर्चा संभाला और सबको दूर-दूर रहने की सलाह दी| अब ये ही तंबू मेरा घर और ये लोग मेरे मरीज| जेहन में एक मसर्रत लेके फिर से अपने अस्पताल चल दिया|
"आपके पास दो दिन की मोहलत है| " पर दो दिन में ये संभव नहीं , मैं 30 साल से ....... रूंधते गले से अचानक आवाज़ रुक गयी | किराये का मकान किराये का होता है और ऊपर से तुम अस्पताल के कर्मचारी ठहरे| आवाज़ में एक रोष था| मगर आप जानते है इस वक्त देश के हालत कैसे है, मैं 55 के उम्र में कहाँ जाऊंगा| तो क्या मैं अपने परिवार को मरने छोड़ दूँ ,ना जाने अस्पताल में कितनो को छुआ होगा तुमने| पुरे घर में एक सन्नाटा छा गया जैसे घर की एक एक ईटे बेजान हो गयी हो| लड़खड़ाके फिर सम्भलते हुए उसने कहा, "ठीक है जैसा आप मुनासिब समझे , कल ही मैं ये मकान खाली कर दूंगा|" आप सब महफूज रहे ये इल्तिज़ा है मेरी| जुबां खामोश हो गयी जैसे अब कुछ बचा ही ना हो बोलने को|
"आप इत्मीनान से बैठ जाइये, मैं एक कप चाय बना देता हूँ आपके लिए|" तल्ख़ होते माहोल के बीच सुदर्शन ने कहा| 'नहीं मुझे कुछ नहीं पीना है, बस आप ये मकान .........|' चीखते चिल्लाते हुए मनोज मकान से बाहर निकला| हांफते कंपकपाते हुए उसने एक कुर्सी अपनी तरफ खींची और उस पर इत्मीनान से बैठ गया| कुछ देर बैठने के बाद कमरे के एक कोने की और रुख किया| अलमारी में रखे कुछ कपडे और चंद पैसे समटने लगा| तभी कपड़ों के साथ कुछ फटे पुराने पन्ने नीचे गिर गए, उन्हें उठाने की ज़हमत करते हुए वहीं ज़मीन पे बैठ गया| कपडे उठाते हुए फटे पन्नो पर निगाहे गयी तो देखा मनोज के बेटे की अस्पताल रिपोर्ट थी| कुछ बरस पहले भाग दौड़ करते हुए कैसे उसके बेटे की जान बची थी| उन कागजो को वहीं छोड़, कपडे समटने में मशगूल हो गया| सब सामान को संदूक में भर कर बाहर वाले कमरे में रखी टूटी टेबल पर पटक दिया| वही पास में रखी कुर्सी पे जाके बैठ गया, कुछ समय बाद अचानक उठा और रसोईघर की तरफ चला दिया| एक कप चाय के साथ वापस आया और फिर उसी कुर्सी पे आके इत्मीनान से बैठ गया और सोचने लगा 'इस कैफियत में सारे इंसानो के फितरत एक जैसी होती है|' खैर छोड़िये "किराये का घर किराये का होता है" और सुकून से एक कप चाय पीने लगा| संदूक उठाया और लबो पे एक मुस्कराहट लेते हुए घर से बहार आ चला|
बहार आकर देखा तो सुने शहर, वीरान रास्ते एक झुठलाती तस्वीर बयां कर रहे है| काफिलों पे काफिले, पैदल नंगे पाव, जेब खाली, गठरी में दो जोड़ी कपडे , पैरो में छाले, टूटे मन और ठिठकी उम्मीदों के साथ गाँव जा रहे उन मजदूर लोगो की दास्तान है जिन्हे कभी किसी ने नहीं जिया| मैं भी उन काफिलों के साथ हो चला, मुलाकात हुई तो 'लोगो ने कहा यहाँ से बस मिलेगी, तो मैं यहाँ आ गयी| बहुत देर से पैदल चल रही हूँ, मुझे याद नहीं कितने घंटे| मैं बहुत परेशान हूँ, रो-रोकर गुहार लगा रही हूँ| मेरा कोई नहीं है यहाँ , मैं कहाँ रूकती, वो पूछ रही थी| मेरे पास इसका कोई जवाब ना था, मैंने अपने बस्ते से कुछ खाने के पैकेट निकले और दे दिए| मैंने अपना मोर्चा संभाला और सबको दूर-दूर रहने की सलाह दी| अब ये ही तंबू मेरा घर और ये लोग मेरे मरीज| जेहन में एक मसर्रत लेके फिर से अपने अस्पताल चल दिया|
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