किस जीत की राह देख रहा है तू
जिस रणभूमि में कदम तेरे नहीं
जिस युद्ध में तू आजतक दिखा नहीं
उस रण के मैदान में कभी लड़ा नहीं
मृत्यु के भय से छोड़ दिया जो संग्राम
उस युद्ध के चक्रव्यूह में जो फंस गया
रणभूमि की रणनीति को समझा नहीं
गढ़ की दीवारों को जो भेद नहीं सका
उस युद्ध के चक्रव्यूह में जो फंस गया
रणभूमि की रणनीति को समझा नहीं
गढ़ की दीवारों को जो भेद नहीं सका
अहंकार के हठ में दो गज जंमीन भी
दुश्मनो से तू कभी हड़प नहीं पाया
जिस गढ़ को फतह करने के सपने
सँजो रहा है जो तुझे कभी मिलेगा नहीं
जिस गढ़ को फतह करने के सपने
सँजो रहा है जो तुझे कभी मिलेगा नहीं
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